Meditation Is Life

योग अध्यात्म जगत् का सर्वोत्कृष्ट विज्ञान है। यह स्वयं साध्य और साधन, दोनों है। इसे मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य भी कहा गया है व इस लक्ष्य की प्राप्ति का श्रेष्ठतम-सुलभतम मार्ग भी। इस प्राचीनतम विधा के मर्मज्ञों-विशेषज्ञों की दृष्टि में योग से श्रेष्ठतम अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है।

ऋषिप्रणीत विज्ञान के रूप में योग और इसकी विभिन्न प्रणालियों, परंपराओं का मुख्य ध्येय यही है कि इसके माध्यम से मानवीय संभावनाओं को जाग्रत कर मनुष्यमात्र के जीवन को समग्रता और सार्थकता प्रदान की जा सके।

योगविद्या भारतभूमि की अमूल्य विरासत है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक इस देवभूमि पर तपस्वियों, ऋषियों, योगियों, साधकों ने अपने साधना-तप पुरुषार्थ से योग की पुनीत परंपराओं को जाग्रत व पुष्ट बनाए रखा है। इसी धरा ने समूचे विश्व के समक्ष आत्मानुसंधान की प्रणाली के रूप में इस जीवन विज्ञान का अनावरण किया है।

भारतीय जीवन-सिद्धांतों में योग का मार्ग शाश्वत और सनातन है। इस पर चलने वालों के लिए यह साधना-पथ सदैव ही परम कल्याणकारी रहा है। जिन्होंने इसके मर्म एवं महत्त्व को जाना- समझा है, उन्होंने इस मार्ग पर चलकर-तपकर साधक, सिद्ध और योगी के रूप में विश्व मानवता के जीवन-पथ को आदिकाल से प्रकाशित एवं गतिमान बनाए रखने का कार्य किया है।

Meditation in Life
Meditation

 

विगत कुछ दशकों में योग को लेकर भारत ही नहीं, अपितु समूचे विश्व में एक नई क्रांति और जाग्रति का वातावरण बना है। शिक्षा, चिकित्सा और समाज कल्याण से जुड़े संस्था-संस्थानों में प्राथमिकता से योग के शिक्षण-प्रशिक्षण, प्रचार- प्रसार, शोध-साधना आदि के कार्य संचालित किए जा रहे हैं। योग को लेकर अनेक स्वतंत्र संस्थान व संस्थाएँ भी स्थापित हो चुके हैं, जो राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग के विस्तार को गति दे रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी में योग के प्रति उत्तरोत्तर बढ़ते आकर्षण और रुचि को देखते हुए यदि इसे योगक्रांति की सदी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अब योग केवल साधना मार्ग वालों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि चिकित्सा, कैरियर, व्यवसाय, प्रबंधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सौंदर्य आदि अनेक क्षेत्रों में इसका विस्तार स्पष्टता से देखा जा सकता है।

जीवन-विद्या की सर्वोत्कृष्ट प्रणाली के रूप में प्राचीनकाल से चली आ रही योगविद्या का आधुनिक युग में इतना बहुआयामी विस्तार और विकास अत्यंत गर्व की अनुभूति कराने वाला है, लेकिन योग के ऐसे आधुनिक विस्तार के साथ इस पुनीत प्राचीन परंपरा में कुछ विसंगतियाँ भी दिखाई देने लगी हैं, जो हम सभी के लिए चिंता और चिंतन का विषय हैं।

यह सर्वप्रत्यक्ष है कि हमारी आधुनिक सभ्यता पर किस तरह भोगवाद की प्रवृत्ति हावी है। व्यक्ति स्वयं को केंद्र में रखकर संसार की हरेक चीज को सुख-संसाधन और उपभोग की वस्तु बनाने पर आतुर है। ऐसी प्रवृत्ति से ग्रस्त समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग है, जो योग को भी व्यावसायिकता का एक नया क्षेत्र समझता है।

ऐसों के लिए यह साधना-मार्ग कदापि नहीं है, सिर्फ लौकिक जीवन के लिए सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य का एक किफायती साधन मात्र है। अन्य सामानों की तरह योग की भी दुकानें सजने लगी हैं। देश-दुनिया के शहर, कस्बों, गाँवों तक में झुंड-के-झुंड लोग योगाभ्यास करते देखे जा सकते हैं।

पता नहीं इनमें से ऐसे कितने होंगे, जिनका उद्देश्य चित्तशोधन, आत्मपरिष्कार और आत्मलाभ प्राप्त करना होगा; जबकि योग का मूल ध्येय तो यही है। त्याग, अनुशासन, कठोर संयम और शुद्धता के बिना योग कभी भी साध्य नहीं है और न ही साधन। इसकी मर्यादाओं के बाहर यह करने- कराने वालों के लिए सिर्फ हाथ-पैर हिलाने और शरीर को मोड़-मुड़ा लेने की एक विशिष्ट अभ्यास- प्रक्रिया मात्र रह जाती है ।

योग की शिक्षा, डिग्री, प्रमाणपत्र, उपाधि आदि प्रदान करने वाले संस्थानों की भी उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हो रही है। स्वास्थ्य, चिकित्सा और कैरियर को लेकर भारी संख्या में युवाओं का इस ओर आकर्षण बढ़ा है। समय की माँग की दृष्टि से यह अच्छा प्रयास है, लेकिन चिंता की बात यह है कि योग की इस आधुनिक शिक्षा-प्रक्रिया में इस चैतन्य विज्ञान का जीवन के साथ अंतर्संबंध एवं मूल उद्देश्य कहीं खोता नजर आ रहा है।

यम, नियम का पालन अर्थात आचरण और चरित्र की शुद्धता इस शिक्षा की पहली अनिवार्यता है। इसके पश्चात आसन, प्राणायाम और बंध, मुद्रा आदि हठयोग की प्रक्रियाएँ आती हैं। यह यात्रा यहीं तक नहीं रुक जाती प्रत्युत धारणा, ध्यान, समाधि के सोपानों तक पहुँचकर मानव उत्कर्ष को चरितार्थ भी बनाती है। यही योग और योग शिक्षा का मूल और सार्थ ध्येय है। इससे कम में कुछ भी नहीं। ऐसे में शिक्षा जगत् से जुड़े समुदाय की यह जिम्मेदारी बनती है कि योग शिक्षा के स्वरूप को उसकी मूल भावना और उद्देश्य को सामने रखकर ही प्रस्तुत किया जाए।

 

शिक्षण-प्रशिक्षण का यह सामान्य नियम है। कि विषय की मूल प्रकृति और मौलिकता के अनुसार ही उसको सिखाने और मूल्यांकन करने की रीति-नीति अपनाई जाती है। योग आंतरिक जीवन को रूपांतरित और परिष्कृत करने वाला एक विशिष्ट विज्ञान है, एक उच्चस्तरीय विद्या है।

आदिकाल से इसका शिक्षण-प्रशिक्षण व मूल्यांकन का कार्य ऋषिस्तर के तपस्वियों, अनुशासित योगियों, सिद्ध साधकों द्वारा ही किया जाता रहा है। शिष्यों, साधकों-अभ्यर्थियों के लिए: निर्धारित कसौटियों में भी कहीं कोई छूट का प्रावधान नहीं रखा गया है। इसलिए आचार्य की योग्यता और शिक्षार्थी की पात्रता, दोनों योग के उद्देश्यपूर्ति की आवश्यक और अनिवार्य शर्तें हैं ।

यहाँ इस चिंतन की आवश्यकता है कि योग की शास्त्रीय अवधारणाओं, विचारों-सिद्धांतों की जानकारी अथवा योग-क्रियाओं के कुछ बाह्य पक्ष की कुशलता प्राप्त कर-करा देने मात्र से योग का लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता है और न ही कोई सार्थकता सिद्ध होती है, लेकिन वर्तमान में योग शिक्षा की यही सच्चाई पहचान बनते जा रही है।

योग विज्ञान की व्यापकता में इसके भौतिक व लौकिक लाभों को नकारा नहीं जा सकता है, परंतु यहीं तक इसको सीमित कर जीवन निर्माण, परिष्कार व आत्मोत्कर्ष जैसे उच्चस्तरीय प्रयोजन में इसका उपयोग न करना सर्वथा अनुचित और दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाना चाहिए। आज व्यक्ति और समाज का जीवन मूल्यहीनता और चारित्रिक दोषों, संकीर्णताओं से त्रस्त है व समाधान पाने को व्याकुल भी।

इस समाधान हेतु एकमात्र योगमार्ग ही सार्थक उपाय है, लेकिन इसे भी हम व्यावसायिक पूर्ति और भौतिक लाभों में ही आबद्ध कर देंगे तो फिर जीवन के आंतरिक और मूल्यात्मक क्षेत्र में फैली समस्याओं और चुनौतियों के समाधान का उपाय कहाँ खोजने जाएँगे ? अतः योग शिक्षा के किसी भी स्तर के पाठ्यक्रम अथवा प्रकल्प का सरोकार व्यक्ति के आंतरिक परिष्कार और आत्मविकास से अवश्य होना चाहिए।

योग के वास्तविक लक्ष्य और योगाभ्यास की अनिवार्य कसौटियों को सामने रखकर यदि वर्तमान के योग शिक्षा क्षेत्र में किए जा रहे प्रयासों का मूल्यांकन करते हैं तो अनेक विसंगतियाँ व एकांगीपन नजर आता है। इस क्षेत्र में योगतत्त्व से समर्थ योग्य आचार्यों, शिक्षण की उचित परंपराओं व तकनीकों का अभाव है।

इसके मूल्यांकन की मौजूदा प्रक्रिया भी ऐसी है, जिससे यह कदापि नहीं जाना जा सकता कि किस साधक अथवा अभ्यासी की योग मार्ग में कितनी गति है अथवा आंतरिक चेतना एवं व्यक्तित्व का विकास कहाँ तक संभव हो पाया है।

गुरु-शिष्य के आदर्श एवं अंतर्संबंध भी गायब है। अभ्यास की अवधि भी अल्प ही रहती है। साल-दो साल में डिग्री-उपाधि के दौरान थोड़ा-बहुत अभ्यास और जानकारी प्राप्त कर लेने मात्र से बात नहीं बनने वाली। जो एक बार इस मार्ग पर चल पड़ता है, उसे अनवरत इसी दिशा में आगे बढ़ना होता है। अपने लौकिक उद्देश्यों को पूरा करते हुए भी अपनी योगयात्रा को अंतिम लक्ष्य तक जारी रखना होता है और समय-समय पर समर्थ आचार्यों का सान्निध्य भी प्राप्त करना पड़ता है।

उक्त सभी विसंगतियाँ और चुनौतियाँ आज के योग शिक्षा जगत् के समक्ष उसका कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व बनकर खड़ी हैं। इस उत्तरदायित्व से न तो स्वयं विमुख हुआ जा सकता है और न अन्य को किया जा सकता है।

 

चिंतन, चेतना और चरित्र के परिशोधन और उत्कर्ष के विज्ञान के रूप में योग ही सार्वकालिक व सार्वभौमिक विद्या है। इस रूप में यदि योग के आंतरिक एवं सूक्ष्म पहलुओं-उद्देश्यों को योग शिक्षण-प्रशिक्षण में प्राथमिकता से स्थान नहीं दिया जाए तो इसकी शिक्षा का मुख्य ध्येय एकांगी और अधूरा रह जाएगा।

इसके लिए आवश्यकता है कि योग के बाह्य और अंत:- दोनों आयामों को सम्मिलित कर समग्रता के साथ योग शिक्षा की संरचना तैयार की जाए। डिग्री एवं उपाधियों में वैचारिक-सैद्धांतिक एवं क्रियात्मक पक्ष ही नहीं अपितु चरित्र, चिंतन और आंतरिक परिष्कार से जुड़ी कसौटियाँ भी मूल्यांकन का आधार बनें।

श्रेष्ठतम आध्यात्मिक मार्ग है योग

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