हमारे यहाँ बुजुर्गों के लिए सम्मान और प्यार देने की परंपरा है। कहने को प्रभावित होती है। तो वे भी प्यार और सम्मान के हकदार हैं, लेकिन भारतीय समाज में वरिष्ठ नागरिकों को होता है, जिसके चलते उनकी पदोन्नति भी बहुत असलियत में वे बुरी तरह से उपेक्षित हैं। रिसर्च एंड एडवोकेसी सेंटर ऑफ एज वेल फाउन्डेशन द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में खुलासा हुआ है कि आज युवा पीढ़ी न केवल वरिष्ठ जनों के प्रति लापरवाह है, बल्कि वह उन लोगों की समस्याओं के प्रति जागरूक भी नहीं है।
वह पड़ोस के बुजुर्गों के लिए तो सम्मान दिखाने के लिए तत्पर दिखती है मगर अपने ही घर के बुजुर्गों की उपेक्षा करती है तथा उन्हें नजरअंदाज करती है। तात्पर्य यह कि बुजुर्ग हर जगह उपेक्षित हैं। और आज की युवा पीढ़ी उन्हें बेकार की चीज मानने लगी है। वह यह नहीं सोचती कि उनके अनुभव उनके लिए बहुमूल्य हैं, जो उनके जीवन में पग-पग पर महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
देखा जाए तो संयुक्त परिवार के प्रति जो प्रतिबद्धता युवाओं में साठ-सत्तर के दशक तक दिखाई थी, आज उसका चौथाई हिस्सा भी नहीं दिखाई देता। एक सर्वेक्षण के अनुसार 59.3 फीसद लोगों का मानना है कि समाज और घर में बुजुर्गों के साथ व्यवहार में विरोधाभास है। केवल 14 फीसद का मानना है कि घर हो या बाहर-दोनों ही जगह बुजुर्गों की हालत एक जैसी है, उसमें कोई अंतर नहीं है। जबकि 23 फीसद के अनुसार घर में बुजुर्गों का सम्मान खतम हो गया है।
वह बात अलग है कि कुछ फीसद की राय में घर में बुजुर्गों १ को सम्मान दिया जाता है। अनेक महिलाएँ मानती हैं कि जहाँ तक परिवार का सवाल है, हमारा परिवार तो मैं, मेरे पति व मेरे बच्चे में सिमट गया है। सास-ससुर व देवर-ननद हमारा परिवार नहीं है। विडंबना तो यह है कि पत्नी के कथन से पति भी प्राय: पूरी तरह सहमत दिखते हैं। इस स्थिति में संयुक्त परिवार की कल्पना ही व्यर्थ है।
इस स्थिति में सबसे ज्यादा प्रभावित परिवार के बुजुर्ग ही होते हैं। इसमें दो राय नहीं कि जो सुरक्षा और सम्मान परिवार के बुजुर्गों को आज से 40-50 साल पहले प्राप्त था- वह आज नहीं है। बुजुर्गों के प्रति सम्मान की भावना हमारी संस्कृति और परंपरा को दरसाती है। इसका श्रेय भी संयुक्त परिवार प्रथा को जाता है। भारतीय संयुक्त परिवार प्रथा में बुजुर्गों का स्थान सम्मानजनक रहा है।
परिवार के मुखिया को विशिष्ट सलाहकार और नियंत्रक के रूप में माना जाता रहा है। वास्तविकता तो यह है कि परिवार के सदस्य अपने घर के बुजुर्गों को हलके में लेते हैं- इसके बावजूद बुजुर्ग उन पर अपना अधिकार तक नहीं जताना चाहते हैं। वे उस उम्र में भी सक्रिय रहना पश्चिमी प्रभाव, शहरीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर ने संयुक्त परिवार प्रथा को बुरी तरह झकझोरकर रख दिया है। हमारे यहाँ संयुक्त परिवार टूट रहे हैं,
जबकि पश्चिमी जगत् में हमारी संयुक्त परिवार प्रथा को एकाकी जीवन से छुटकारा पाने का एक कारगर उपाय माना जा रहा हैं। आज के समय की सबसे अहम जरूरत बुजुर्गों की परेशानियों के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की है, ताकि वे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रूप से खुद को समाज और परिवार से अलग-थलग न महसूस करें। सरकार को चाहिए कि वह उनके लिए वे समुचित पेंशन की व्यवस्था करे और उन्हें सुरक्षा प्रदान करे।
साथ ही सन् 1999 में इसके लिए बनी नीति की समीक्षा भी की जाए, जिससे यह पता चल सके कि आखिर उनकी जरूरतों को किस तरह पूरा किया जा सकता है। सबसे पहले घर के बुजुर्गों का ख्याल न रखने वाले परिवार के सदस्यों पर कड़ाई का कानून जो सन् 2007 में बनाया गया है, उसे और कड़ा किया जाए। जब वे ही अपने दायित्व से विमुख हो जाएँगे उस दशा में सरकार के प्रयास बेमानी साबित होंगे।
व इसमें दो राय नहीं कि बुढ़ापे में संतान अक्सर उनसे छुटकारा पाना चाहती है। वह बूढ़े हो चुके माँ-बाप को एक बोझ समझती है। केंद्र सरकार ने महिलाओं की तरह ही बुजुर्गों के लिए अलग से बजट बनाने पर काम शुरू किया है, ताकि बुजुर्गों की उचित देख-भाल की जा सके और आबादी के इस आठ फीसद हिस्से को सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ प्रदान कर उनके हितों की रक्षा कर वह अपना दायित्व पूरा कर सके। सरकार का यह प्रयास और इस वर्ग के प्रति उसकी जागरूकता सराहनीय है, लेकिन इस पर अमल कब तक होगा वह भगवान भरोसे है।
विशेषकर स्वास्थ्य के संबंध में स्थिति विशेष चिंतनीय है। अन्य विशेषाधिकारों पर भी आए दिन तलवार लटकती रहती है। ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति’ मोटेतौर पर अपने
2015 के लक्ष्य से भी कुछ कमतर ही दिखती है। इसमें इस साल बजट में बताई गई बातों का कुछ अंश है और 12वीं योजना के लिए पूर्व योजना आयोग द्वारा गठित उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति के तय किए स्वास्थ्य लक्ष्यों की भी बात है,लेकिन यह स्वास्थ्य को उस तरह अधिकार नहीं बनाती, जैसे 2005 में शिक्षा का अधिकार कानून ने शिक्षा को सबका हक बना दिया था। इसके पहले 2002 में ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति’ लाई गई थी।
नई नीति के तहत सरकार का दावा है कि स्वास्थ्य के मद में खरच को बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी का 2.5 प्रतिशत किया जाएगा। इसके लिए सन् 2025 तक लक्ष्य रखा गया लेकिन 12वीं योजना की विशेषज्ञ समिति ने जीडीपी का इतना प्रतिशत खरच करने का लक्ष्य इसी अवधि तक रखा था।
सन् 2011 में उस रिपोर्ट में कहा गया था कि स्वास्थ्य के मद में जीडीपी के मौजूदा 1.2 प्रतिशत खरच को बढ़ाकर 12वीं योजना की अवधि खतम होने तक 2.5 प्रतिशत और सन् 2022 तक कम- से-कम 3 प्रतिशत किया जाना चाहिए, ताकि विशेषकर महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों का स्वास्थ्य सुधर सके। देश में जिस तरह स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ती
जा रही हैं, उससे सरकार से इस पर और गंभीरता से विचार करने की उम्मीद थी। देश में कुपोषण और बीमारियों का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।
उसके मुकाबले सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। दवाइयों और इलाज का खरच लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल के कुछ सर्वेक्षणों से यह पता चलता है कि हर परिवार में दवाइयों और इलाज पर खरच लगातार बढ़ता जा रहा है। कई मामले ऐसे भी हैं कि बड़ी बीमारियों के चलते कई परिवारों की माली हालत काफी खराब होती जा रही है।
इसलिए नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति से उम्मीद थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर इन समस्याओं का कोई हल लेकर सामने आएगी, लेकिन इसमें नया केवल स्वास्थ्य बीमा योजना के ही मद में कुछ हद तक बढ़ोतरी का होना है। इससे खास राहत की उम्मीद नहीं है। बेहतर होता कि सरकार कुछ नए सिरे से विचार करती और उसके केंद्र में बुजुर्गों के स्वास्थ्य कल्याण को प्रमुखता देती। वर्तमान परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में इन्हीं कदमों को उठाने की और उन पर त्वरित रूप से क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है, ताकि इस महत्त्वपूर्ण समस्या का समुचित समाधान हो सके ।
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