अंतर्मुखी होने का तात्पर्य है-अपने विचार और भाव को अंतर्यात्रा की ओर अग्रसर करना। अ
इससे ऊर्जा का बिखराव नहीं होता है। इसलिए अंतर्मुखता का विकास जीवन का परम आदर्श
माना गया है। जो उस अवस्था का स्पर्श कर लेता है, उसका व्यक्तित्व समता और सहजता का प्रतीक
बन जाता है। वह परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव से बहुत कम प्रभावित होता है।
संसार में संयोग और वियोग तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता का चक्र निरंतर चलता रहता है।
संत कबीर ने लिखा है-
चलती चक्की देखि कै, दिया कबीरा रोय ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ॥
यहाँ दो पाटों से सुख-दुःख, हर्ष-शोक व संयोग-वियोग की घटनाओं का संकेत है। जीवन
के क्षितिज पर विविध प्रकार के रंग बनते और मिटते रहते हैं। हर व्यक्ति को उनका अनुभव करना
होता है। यह एक जटिल समस्या है, जिससे विशिष्ट ज्ञानी व्यक्ति भी विचलित हो जाते हैं।
संत कबीर ने इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए दूसरे पद में कहा है-अनाज के दो दाने
चक्की की कीली से संबद्ध और संयुक्त होते हैं, वे उन परिस्थितियोंरूपी पाटों के प्रभाव से आहत
नहीं होते हैं तथा स्वयं को सुरक्षित रखने में सफल हो सकते हैं।
जिनका चिंतन अध्यात्म की धुरी पर केंद्रित होता है-वे उनकी भाषा में दो चक्की की कीलियों
से लगे हुए अनाज के दानों के समान हैं। नैतिक आदर्शों का अनुसरण करने के लिए जीवन में
आध्यात्मिक भूमिका का विकास जरूरी है। आध्यात्मिकता माँ है, नैतिकता पुत्री है दोनों का
घनिष्ठ संबंध है। आध्यात्मिकता, अंतर्मुखता तथा संत कबीर की भाषा में कीलों से जुड़ना तीनों
का तात्पर्य एक ही है।
भाषा विज्ञान में दो शब्द आते हैं- उत्कर्ष और अपकर्ष। अंतर्मुखता शब्द का प्रयोग जीवन में स्पष्ट
भूमिका के लिए जरूरी है; क्योंकि मानव विज्ञान की अवधारणा और परिभाषा के कारण आज उसका
अपकर्ष हो रहा है। वर्तमान समय में जो भीरु, पलायनवादी और आत्मकेंद्रित होता है, उसे अंतर्मुखी
कहा जाता है।
कुछ लोगों के अनुसार यह एक विशेष प्रकार की मानस व्याधि का रूप है, जिसे व्यक्तित्व
का अशुद्ध और खंडित स्वरूप समझा जाता है।
अनेक व्यक्ति समाज में समय-समय पर मिल जाते हैं, जो कई प्रकार के मनोरोगों से ग्रसित हैं। वे
अपने कर्त्तव्य और दायित्व के प्रति बिलकुल उदासीन होते हैं तथा परिवार और समाज के लिए
भार बन जाते हैं।
कई लोग आज उन्हें अंतर्मुखी मानते हैं, परंतु जीवनदर्शन में अंतर्मुखता के विकास
पर जो बल दिया गया है, उसका तात्पर्य आधुनिक परिभाषा और व्याख्या से बिलकुल भिन्न है। इसके
अनुसार जहाँ वृत्ति और सामुदायिक चेतना का विकास होता है, वह अंतर्मुखी है।
कर्त्तव्यनिष्ठ अध्यात्म और व्यवहार का गहरा संबंध है। सच्चा अंतर्मुखी वह है, जिसके व्यावहारिक
जीवन में आध्यात्मिक आदर्शों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वह अपने कर्त्तव्य और दायित्व के प्रति
सतत जागरूक होता है।
आज भक्ति और उपासनाप्रधान धर्म का बहुत विकास हो रहा है। उसके साथ कर्त्तव्यनिष्ठा और मे
त्याग-भावना का आदर्श भी बढ़ना चाहिए। इसके हअभाव में धर्म की तेजस्विता मंद हो जाती है तथा
भक्ति भी आसक्ति में परिणत हो जाती है। कर्त्तव्यनिष्ठा के अभाव में भक्ति के सारे पक्ष अधूरे हैं।
अंतर्मुखी व्यक्ति का दृष्टिकोण विशाल होता है। वह स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को अधिक महत्त्व
देता है। आज समाज में व्यक्तिवाद और स्वार्थवाद की भावना का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। अपने ज
स्वार्थ के लिए दूसरे का अहित और अनिष्ट करने में लोगों को संकोच का अनुभव नहीं हो रहा है।
अंतर्मुखी व्यक्ति अपने हितों और स्वार्थों को अ बलिदान कर देता है, पर दूसरों के अहित और अनिष्ट भ
का कभी विचार भी नहीं करता। हिंसा, असंयम और श भ्रष्टाचार के विषैले बीज आज जो समाज में व्यापक
रूप से अंकुरित हो रहे हैं, स्वार्थवाद की भावना उसका प्रमुख कारण है। इसलिए निस्स्वार्थवृत्ति का विकास
होना आवश्यक है। जहाँ कर्त्तव्य की भावना गौण तथा अधिकार की भावना प्रमुख हो जाती है, वह समाज
दुःखी और रोगी हो जाता है।
संस्कृत साहित्य में समाज और समज दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। मनुष्य का समूह समाज और पशुओं का समूह समज कहलाता है। समाज के
में एक मात्रा अधिक है, यह अहिंसा की मात्रा है, हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं। अहिंसा के अभाव
में मनुष्यों का समूह भी पशुओं के समान होता है।
अहिंसा और सामुदायिक चेतना का गहरा संबंध है। आध्यात्मिक चेतना का आदर्श स्वतः विकसित
होता है।
भगवान महावीर ने कहा है- जिसके जीवन में सामुदायिक चेतना का विकास होता है और
जो सबके सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील और करुणाशील होता है, वही सच्चा ज्ञानी है ।
सामुदायिक चेतना से संपन्न होते हैं वे भेद में भी अभेद, अनेकता में भी एकता तथा विषमता में
भी समता से जीने में सफल हो सकते हैं। हमारे शरीर में अग्नि, पानी, वायु आदि विरोधी तत्त्वों
का समावेश है और जब तक इनमें समन्वय और संतुलन है, तब तक हम स्वस्थ हैं। विविधता
और अनेकता सृष्टि के अटल नियम हैं। हमें मनुष्य, अन्य प्राणी तथा पदार्थ जगत् के अस्तित्व
का सम्मान करते हुए समन्वयप्रधान दृष्टि का विकास करना चाहिए। संतुलन एवं सामंजस्य का
सुनियोजन करना चाहिए- इससे हमारा व्यक्तित्व विकसित होता है।